बिरसा मुंडा: भारतीय जनजातीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायकबिरसा मुंडा: भारतीय जनजातीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक

 Bhagwan. Birsa Munda 

बिरसा मुंडा: भारतीय जनजातीय स्वतंत्रता सं

ग्राम के महानायक


भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अनेक नायकों ने योगदान दिया, लेकिन कुछ ऐसे वीर हुए जिन्होंने अपनी वीरता और संघर्ष से इतिहास में अमिट छाप छोड़ी। ऐसे ही महानायक थे बिरसा मुंडा, जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष कर जनजातीय समाज को एक नई दिशा दी। वे न केवल एक योद्धा थे, बल्कि समाज सुधारक और आध्यात्मिक नेता भी थे।

बिरसा मुंडा का प्रारंभिक जीवन


बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के खूंटी जिले में एक गरीब मुंडा परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम सुगना मुंडा और माता का नाम करमी हातू था। बचपन में ही उनका परिवार काम की तलाश में अन्य गांवों में भटकता रहा। बिरसा की प्रारंभिक शिक्षा सलगा गांव में हुई, लेकिन गरीबी के कारण वे ज्यादा पढ़ाई नहीं कर सके। बाद में उन्होंने चाईबासा में ईसाई मिशनरी स्कूल में दाखिला लिया, लेकिन ईसाई धर्म के प्रभाव से नाराज होकर इसे छोड़ दिया।


बिरसा मुंडा और मुंडा विद्रोह


बिरसा मुंडा का जीवन संघर्ष और प्रेरणा का प्रतीक था। उन्होंने महसूस किया कि अंग्रेजों द्वारा थोपे गए नियम-कानून आदिवासियों के शोषण का कारण बन रहे हैं। ब्रिटिश सरकार द्वारा जबरन लगान वसूली, जंगलों पर प्रतिबंध और जमींदारी प्रथा के कारण जनजातीय समाज संकट में था।

बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को संगठित किया और उन्हें जागरूक किया कि वे अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होकर संघर्ष करें। उनके नेतृत्व में 1895 से 1900 के बीच मुंडा विद्रोह हुआ। यह विद्रोह "ऊलगुलान" के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जिसका अर्थ होता है "महान क्रांति"।

बिरसा मुंडा का समाज सुधार आंदोलन


बिरसा मुंडा ने न केवल राजनीतिक बल्कि सामाजिक सुधारों पर भी ध्यान दिया। उन्होंने आदिवासियों को अंधविश्वास, नशाखोरी, आपसी झगड़ों और अज्ञानता से मुक्ति पाने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने खुद को भगवान का अवतार घोषित किया और "धरती आबा" के रूप में प्रसिद्ध हुए। उन्होंने आदिवासियों से कहा कि वे ईसाई धर्म के प्रभाव से दूर रहें और अपने पारंपरिक धर्म और संस्कृति को बनाए रखें।

ब्रिटिश सरकार से संघर्ष और गिरफ्तारी


बिरसा मुंडा के नेतृत्व में मुंडा आदिवासियों ने कई बार ब्रिटिश सरकार की नीतियों का विरोध किया और सरकारी ठिकानों पर हमले किए। उन्होंने अंग्रेजों को अपने इलाकों से खदेड़ने के लिए सशस्त्र संघर्ष भी किया। लेकिन 3 फरवरी 1900 को अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ लिया और रांची के जेल में बंद कर दिया।


मृत्यु और विरासत


9 जून 1900 को मात्र 25 वर्ष की उम्र में रांची जेल में संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। ब्रिटिश सरकार ने उनकी मृत्यु का कारण बीमारी बताया, लेकिन कई लोग इसे एक साजिश मानते हैं।


बिरसा मुंडा की शहादत के बाद भी उनका आंदोलन व्यर्थ नहीं गया। 1908 में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम लागू किया गया, जिससे आदिवासियों की भूमि पर बाहरी लोगों के कब्जे पर रोक लगी।

बिरसा मुंडा का योगदान और सम्मान

बिरसा मुंडा को भारतीय इतिहास में एक महान स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक के रूप में याद किया जाता है। उनकी स्मृति में कई संस्थानों और योजनाओं का नामकरण किया गया है:

रांची एयरपोर्ट और बिरसा मुंडा स्टेडियम उनके नाम पर हैं।

15 नवंबर को झारखंड राज्य स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता है।

भारत सरकार ने उनकी स्मृति में 1999 में डाक टिकट जारी किया।


2021 में, भारत सरकार ने 15 नवंबर को 'जनजातीय गौरव दिवस' के रूप में घोषित किया।


निष्कर्ष


बिरसा मुंडा ने अपने छोटे जीवनकाल में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जो संघर्ष किया, वह आज भी प्रेरणा देता है। वे केवल एक क्रांतिकारी नहीं थे, बल्कि उन्होंने आदिवासी समाज को सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्तर पर जागरूक करने का कार्य भी किया। उनकी वीरता और बलिदान को सदैव याद रखा जाएगा।

बिरसा मुंडा का जीवन हमें यह सिखाता है कि अपने हकों के लिए लड़ाई लड़ना और समाज को जागरूक करना कितना आवश्यक है। उनका संघर्ष और बलिदान भारतीय इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है।


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